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Thursday, December 8, 2011

सांप्रदायिक आंखों को क्यों नहीं दिखती ये तस्वीरें 
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 बिजुआ। अपने पांच साल के बेटे के साथ ताजिए को सलाम करती इस हिंदू मां ने तारीखों के काले साये को धो डाला। छ: दिसंबर! ये वो तारीख है जिसने देश को दो हिस्सों में बांटने का काम किया। बीस साल बाद भी इस तारीख वाले दिन को प्रशासन बड़ा चौकस रहता है। इसलिए सारे देश में विशेष सतर्कता बरती जाती रही है, लेकिन कुछ तस्वीरें और कुछ मौके अमन के दुश्मनों के लिए सबक बन जाते हैं। कुछ ऐसा ही मोहर्रम के रोज ताजिए के साथ गैरमुस्लिम तबके के लोगों का एहतराम बया कर देता है।
6 दिसंबर 1992, इस तारीख को भले ही 20 साल बीत रहे हों, लेकिन उस रोज के दिन हुए वाकिये को तमाम संगठन और राजनैतिक पाटियां अपने लिहाज से जिंदा रखे हैं। हमेशा से हर साल इस दिन कोई संगठन या समूह विजय दिवस मनाता है, तो कोई शौर्य दिवस, तो कोई काला दिवस तो कुछ शर्म दिवस मनाता है। शासन-प्रशासन के लिए इस 24 घंटे के लिए आने वाली एक तारीख किसी इम्तहान से कम नहीं होती। शायद यह पहला मौका था कि मोहर्रम (ताजिए) का तयौहार इस दिन पर पड़ा था। प्रशासन के लिए इस बार ये तारीख किसी दोहरी परीक्षा से कम नहीं थी। वैसे भी मोहर्रम के त्यौहार को संवेदनशील मानते हुए सतर्कता बढ़ा दी जाती है। देश में भले हालात कुछ रहें हों लेकिन इस तारीख का काला साया यहां नहीं पड़ता। मोहर्रम के त्यौहार को जिस इबादत व एहतराम से मुसलमान मनाते हैं, उससे रत्ती भर हिंदू भाई (गैरमुस्लिम) के दिल में इज्जत कम नहीं होती। 
कर्बला में नजर आई कुछ ऐसी तस्वीरें
ये तस्वीर सिर्फ हमें ताजिए के प्रति हिंदू धर्म के लोगों की आस्था ही नहीं पेश करता, बल्कि ये दृश्य हमें कौमी जज्बे को दिखाते हैं। हमें बताती हैं कि दिनाें के नाम पर इंसानों को तोड़ने वालों के लिए हमारे दिलों में कोई जगह नहीं है।
 
 sabhar amar ujala

Monday, March 7, 2011

महिला दिवस पर .....

खूब लड़ी मर्दानी यह है गौरी की कहानी

शादी के तीन साल बाद छिन गया सुहाग

१० घंटे रौज पढ़ा दौनांे बच्चौं की की परवरिश
गौरी शुक्ला ने जिंदगी के हर उतार चढ़ाव देखे है। वक्त ने ग्री के खूब इम्तिहान लिए। शादी के कुछ ही

समय बाद ग्री का श्हर एक हादसे में साथ छौड़कर चला गया। पीछे छौड़ गया अपने दौ नन्हें मुन्नों कौ। ग्री

पहले तौ टूट गई, लेकिन फिर बच्चौं की परवरिश की जिम्मेदारी ने उसे हर चीज से लड़ना सिखा दिया। बुरे वक्त

और किस्मत से भी।
बीते १६ बरस से ग्री ट्यूशन पढ़ाकर बच्चौं की परवरिश करने के साथ उन्हें अच्छी तालीम भी दिलाई।
ग्री शुक्ला की अब उम्र ३५ साल है। कानपुर के बर्राहाट की ग्री का ब्याह जब बिजुआ के अवधेश शुक्ला के

साथ हुआ तौ हर सुहागिन की तरह उसने भी खूब ख्वाब देखे थे, लेकिन ग्री की किस्मत में तौ संघर्ष लिखा था,

ब्याह के तीन साल बाद अवधेश बिजुआ में ११ हजार की लाईन की चपेट में आकर चुपचाप इस दुनिया से चले गए।

उस समय ग्री के दौ बच्चे थे, बड़ी लड़की श्वेता जिसकी उम्र दौ साल और छौटा लड़का राजीव महज एक साल

का। श्हर की म्त ने ग्री कौ तौड़ के रख दिया। कहने कौ तौ खानदान और भी था, लेकिन जब वक्त बुरा आया तौ

कौई भी साथ नहीं था। अवधेश के हिस्से कुछ पुश्तैनी जमीन थी, लेकिन इतनी भी नहीं कि घर बैठकर जिंदगी

गुजारी जा सके। अपने दौनौं बच्चौं कौ देख ग्री ने घर चहारदिवारी से बाहर दुनिया में पांव रखने का इरादा कर

लिया। औरत की जात कौई काम धंधा भी नहीं मिल रहा था। १० वीं जमात तक पढ़ीं ग्री की शिक्षा उसके परिवार

की खेवनहार बनी। लौगांे के घरौं में ट्यूशन पढ़ाने ग्री जाने लगी, दस रूपये प्रति बच्चा प्रति माह पर ट्यूशन

पढ़ाकर ग्री ने अपनी श्वेता और राजीव कौ पढ़ाना जारी रखा। आज श्वेता एमए कर चुकी है, और बेटा राजीव ११

वीं में पढ़ रहा है।
दस घंटे रौज पढ़ाती है ट्यूशन
चाहे कौई म्सम हौ ग्री के रूटीन पर कौई फेरबदल नहीं हौता। पिछले १६ साल से सुबह छह बजे से शाम के छह

बजे तक ग्री आज भी ट्यूशन पढ़ा रही है।
भीग गई पलकौं की कौरे
जब ग्री से पूंछा कि कब साथ छौड़ गए थे अवधेश ! हौंठ खुलते इससे पहले आंखौं की पलके भारी हौ गई। बोलीं,

१६ बरस हुए अपने बच्चौं की सूरत देखकर जिंदगी काटी है, और आंखें बरबस रौ पड़ी।
विधवा पेंशन एक साल से वह बंद है, बौलीं कौई खुशी में नहीं लेना चाहेगा, लेकिन फिर भी हम जैसी बेवाओं के लिए

एक बड़ा सहारा हौती है। वहीं सयानी हौ चुकी बेटी की शादी की फिक्र ग्री कौ खाए जा रही है।


साभार -अमर उजाला , अब्दुल सलीम खान

Friday, February 18, 2011


बेटियां पढ़ लिखकर संवारेगीं॒घर की किस्मत




परिषदीय स्कूलों में शुरू हुए व्यावसायिक कोर्स
सीख रहीं सिलाईं, ब्यूटीशियन कोर्स के साथ अचार बनाना

अब्दुल सलीम खान
बिजुआ।॒गरीब की बिटिया अब सयानी होकर बोझ नहीं कहलायेगी, परिषदीय स्कूलों में छात्राओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए॒सर्व शिक्षा अभियान के तहत रोजगार मुहैया कराने वाले कोर्स शुरू कराए गए॒हैं जूनियर हाई स्कूल स्तर की यह छात्राएं पढ़ाई के साथ-साथ सिलाई-कटाई,॒फल संरक्षण के साथ ब्यूटीशियन॒कोर्स की तालीम भी पा रही हैं।
बेटी पढ़ी लिखी होगी तो दो परिवार को संवारेगी, गांवो॒में कम उम्र में ब्याह के हो जाने से तमाम बालिकाएं आगे शिक्षा से महरूम रह जाती है, इसलिए॒परिषदीय स्कूलों में कक्षा से ८॒तक की छात्राओं को सर्व शिक्षा अभियान के तहत किताबी शिक्षा के साथ व्यावहारिक एवं रोजगारपूरक शिक्षा दी जा रही है। समन्वयक बालिका शिक्षा रेनू श्रीवास्तव बताती हैं कि इन छात्राओं की पढ़ाई छूटने के बाद घर पर कोई रोजगार कर सके, वहीं शादी हो जाने के बाद बेटी ससुराल में परिवार का खर्च उठा सके।
फल संरक्षण कोर्स में सीख रहीं अचार बनाना
सर्व शिक्षा अभियान से व्यावसायिक शिक्षा देने के लिए॒कई स्कूलों में केंद्र बनाए गए॒हैं। पूर्व माध्यमिक विद्यालय गुलरिया॒में ५० दिवसीय कोर्स शुरू किया गया है। ट्रेनर सावित्री देवी इन्हें बताती हैं कि अचार और मुरब्बा कैसे बनाया जाता है? मौसम के लिहाज से कौन से फल लाभकारी है और कैसे उनका संरक्षण करें?
सिलाई कटाई से सीखेंगी पैरो॒पर खड़ा होना
स्कूल की छात्राएं कपड़ों की सिलाई एवं कटाई भी सीख रहीं हैं, पढ़ाई के साथ रोजगार भी मिले, इसकी जुगत विभाग के साथ इन बालिकाओं को भी है।
गांव की बेटी भी बनेगी ब्यूटीशियन॒
महिलाओं को संजने॒संवरने के लिए॒शहर का रुख करने की जरूरत शायद पड़े, परिषदीय स्कूल की छात्राओं को पढ़ाई के साथ ब्यूटीशियन॒की तालीम भी दी जा रही है। गुलरिया॒में इसके लिए॒एक एनजीओ को जिम्मेदारी॒दी गई है। ट्रेनर अमिता शर्मा इन छात्राओं को संजने॒संवरने का हुनर सिखा रही है।
इंसेट॒
उप बेसिक शिक्षा अधिकारी॒केशव राम मिश्रा कहते हैं कि बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए॒व्यवसायिक कोर्स का संचालन किया जा रहा है, परिषदीय स्कूलों से पढ़कर ये बेटियां खुद ही अपने पैरों पर खड़ी हो सकेगी।

Sunday, February 13, 2011

यहां दफन है एक दास्ताने-मोहब्बत
अब्दुल सलीम खा
बिजुआ। गुलरिया से महज दो किमी दूर डुंडवा गांव की गलियां हर एक गांव के जैसी हैं। वही मिट्टी की सोंधी महक और वही गांव में लगने वाली चौपालें। लोगों में आपस में राम जोहार है, फर्क इतना है कि इस गांव ने दो मोहब्बत करने वालों को अपनी आंखों के सामने फना होते देखा है। अब हर धड़कन धड़कने से पहले उस मंजर को याद कर मोहब्बत के नाम से तौबा कर बैठती है।
डुंडवा गांव की यह कहानी कुछ बरस पुरानी है, लेकिन जब वैलेंटाइन -डे आता है तो बरबस ही ताजा हो उठता है। नौसर गांव का रवि मेहनतकश नौजवान था। वह अक्सर अपने गांव से नहर की तरफ टहलने जाता था। इसी रास्ते में डुंडवा गांव की निर्जला का घर पड़ता था। मिलना जुलना बढ़ने पर दोनों एक-दूसरे से प्यार करने लगे। उनका धर्म एक था, लेकिन जात की दीवारें रोड़ा थी। दोनों के घरवालों ने उन्हें खूब समझाया कि बिरादरी एक नहीं है, सो विवाह कैसे होगा। दोनों के प्यार पर पहरे बिठा दिए, लेकिन इन बातों से रवि और निर्जला पर कोई फर्क न पड़ा, बंदिंशे देखकर दोनों घर छोड़कर चले गए।
शहर में पहुंचकर रवि मेहनत मजदूरी कर परिवार चला रहा था। वक्त बीता और यहां गांव में सब सामान्य हो गया। निर्जला इस बीच अपने घर आने जाने लगी। न जाने किस बात पर निर्जला रवि के साथ फिर जाने को तैयार न हुई। अब शहर से रवि गांव आ गया,और एक दिन रवि निर्जला के घर चला गया। इसे घरवालों का खौफ कहें या फिर कुछ और निर्जला ने रवि के साथ जाने से मना कर दिया। आखिरी बार निर्जला से हां या ना सुनने के लिए रवि अगली सुबह डुंडवा आया। निर्जला ने फिर साथ जाने से मना कर दिया।
इसके बाद रवि निर्जला को खींचकर गांव की चौपाल तक ले गया, इस बीच पूरा गांव वहां जमा हो गया था।
अब रवि ने गांव वालों को अपनी जेब की तरफ इशारा करके कहा कि बीच में न आना जेब में बम है। सबके सामने अपनी मोहब्बत निर्जला पर चाकू से वार किए।
हर वार के बाद एक जहर की गोली खुद भी चबा रहा था। पांच वार और पांच जहर की गोली और दोनों की कहानी जहां से शुरू हुई थी, और वहीं खत्म हो गई।
(कहानी में नाम बदल दिए गए हैं)

Thursday, February 10, 2011


मंदिर की दीवारों पर दर्ज हैं मासूमों की फरियाद




मन्नतों का मंदिर प्राचीन लक्ष्मणयती
लोग अपनों की सलामती के लिए करते हैं प्रार्थना
बिजुआ। मंदिर की दर-ओ-दीवार पर दर्ज हैं वो मन्नतें, जो लोगों ने अपनों के लिए भगवान से कीं। श्रद्धालुओं ने अपने परिवार और शुभ चिंतकों के लिए मन्नतें कोयले से दीवारों पर लिखीं हैं। ताकि हर आनेजाने वाला इन इबारतों को पढ़े । इन इबारतों में किसी ने भगवान से अच्छी शिक्षा के लिए दुआ की, तो किसी ने मम्मी-पापा को खुश रखने की भगवान से प्रार्थना की। कोई अपने भाई के बड़ा हो जाने की, तो किसी ने गुमशुदा भाई से मिलवाने की इच्छा जताई है। कहते हैं कि दुआएं दिल से की जाएं, तो वह भगवान तक जरूर पहुंचती हैं। इन दीवारों पर लिखीं इबारतें बच्चों की मासूमियत तो बयां करती ही हैं। गोला से सटे लाल्हापुर गांव का लक्ष्मणयती स्थान एतिहासिक होने के साथ धर्मिक मान्यताओं को समेटे है। भगवान लक्ष्मण की मूर्ति वाला मंदिर क्षेत्र में अनूठा है। प्राचीनकाल के इस मंदिर पर श्रद्घालुओं का जमावड़ा लगा रहता है। यहां आने वाले लोग मत्था टेककर भगवान शंकर से प्रार्थना करते हैं। साथ ही इन दीवारों पर अपनी आरजू भी लिख देते हैं। इस इबारत में एक छोटी बच्ची ने अपने भाई के जल्दी बड़े होने की कामना की, तो एक ने लिखा कि भगवान मम्मी को अच्छा कर दो, उनका दर्द देखा नहीं जाता। किसी ने प्रार्थना की है कि मैं दादा की लाडली बन जाऊं। एक बच्चे ने अपने लिए नहीं अपने मम्मी पापा की सलामती की भगवान से दुआ की है। एक ने तो रोजगार में तरक्की की कामना की है। कोयले से लिखी इबारतों से दीवार भर चुकी है, लेकिन इन्हीं इबारतों पर आने वाले भक्त फरियाद लिखकर अपनी आस्था का सुबूत देते हैं।

Sunday, December 5, 2010

नयी बात

सेहरूआ गांव में औरतें नहीं डालती हैं अपने वोट
यह कैसा लोकतंत्र, यह कैसी आजादी
अब्दुल सलीम खान
सेहरुआ (खीरी)। आजाद भारत का ये ऐसा गांव है, जहां लोगाें की जहनियत अभी तक कैद में है। सेहरुआ में

बुजुगर्ाें ने रवायत बनाई थी, जब गांव में आधी वोट मर्दो के और आधी वोट औरतें की होती हैं, तो क्यों न

मर्दो की वोट ही जीत-हार तय करे, फिर चुनाव में औरतों का क्या काम? बुजुर्ग तो चले गए लेकिन वो

रवायत यहां आज भी जिंदा है। लोकतंत्र के सबसे बड़े त्यौहार पर भले पूरा गांव झूम रहा हो, लेकिन यहां की

आधी आबादी खामोश है। सेहरुआ गांव में आज भी महिलाएं अपना वोट तक नहीं डालती।
कुंभी ब्लाक के सेहरुआ गांव में वर्ष १९९५ मे प्रधानी के लिए महिला आरक्षण होने पर दोनो प्रत्याशियों

महरुन निशा एवं शिवकुमारी ने अपना वोट डाला था। पिछले लोकसभा चुनाव में सारे गांव ने मतदान का

बहिष्कार कर दिया था, तब प्रशासन ने प्रयास कर १६ वोट डलवाए थे, इसमें गांव के चौकीदार की बीवी का

वोट शामिल था।

दो पदों पर महिलाएं खुद मैदान में
ग्राम पंचायत सदस्य के ११ पदों में पुरुषों के पांच और महिला के दो पद पर निर्विरोध निर्वाचन हो गया,

लेकिन दो पदों पर महिलाओं का चुनाव होना है। अब भले महिलाएं वोट न डालें, लेकिन आरक्षण ने इतना

हक जरूर दे दिया, कि जनप्रतिनिधि कहलाएंगी।

महज दस फीसदी वोट वाला हो सकता प्रधान
सेहरुआ की वोटरलिस्ट में ११३५ मतदाता दर्ज हैं, जिसमें पुरुष ६२२ तो महिलाओं की तादात ५१३ के करीब

है। यही ६२२ पुरुष वोटर ही गांव की प्रधानी के कर्णाधार बनेंगे। पंचायत में दस दावेदारों में लगभग

१२०-१२५ वोट पाने वाला ही प्रधान बनने का हकदार होगा।

सिर्फ चुनाव में ही क्यों ऐसी बंदिशें
गांव में महिला शिक्षामित्र के तौर पर महताब बेगम, आंगनबाड़ी कार्यकत्री बिटोली देवी, आशाबहू मीना एवं

सुषमा मौर्या की तैनाती है। यहां औरतें हर काम में आगे हैं, लेकिन फिर भी मतदान में कभी हिस्सा नहीं

लेती।

यहां की बेटियों को मिला ससुराल में वोट का हक
आबिद अली की बेटी बिटोली जब ब्याह कर अमेठी गई, तब पहली बार वोट का अधिकार मिला। इसी तरह

मोहम्मद अली की बिटिया भी अमेठी में ब्याही है, उसने भी पहला वोट ससुराल में ही डाला। यहां की बेटियों

को मायके ने हक से महरूम रखा उसे ससुराल ने पूरा किया।

Thursday, November 11, 2010

jara sochiye

जरा सोचिये ,......
हम पेड़ों को काट रहे है, एक दिन ऐसा आयेगा जब परिंदों को पेंड़ो के बजाय बिजली के खम्भों पर अपने बसेरे बनाने पड़ेगें ?

Monday, April 26, 2010

kuch khabar hai.....

hum roj aate jate kitni bato ko ignore karte hai, aisi baten jo ki kisi khabar se kam nahi hoti, aur kahin na kahin hum se judi hoti hai ,is blog par swagat hai us har vyakti ka jo gaon dehaat ki baat kare ,