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Tuesday, April 3, 2012
Thursday, December 8, 2011
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Saturday, March 26, 2011
Monday, March 7, 2011
महिला दिवस पर .....
शादी के तीन साल बाद छिन गया सुहाग
१० घंटे रौज पढ़ा दौनांे बच्चौं की की परवरिश
गौरी शुक्ला ने जिंदगी के हर उतार चढ़ाव देखे है। वक्त ने ग्री के खूब इम्तिहान लिए। शादी के कुछ ही
समय बाद ग्री का श्हर एक हादसे में साथ छौड़कर चला गया। पीछे छौड़ गया अपने दौ नन्हें मुन्नों कौ। ग्री
पहले तौ टूट गई, लेकिन फिर बच्चौं की परवरिश की जिम्मेदारी ने उसे हर चीज से लड़ना सिखा दिया। बुरे वक्त
और किस्मत से भी।
बीते १६ बरस से ग्री ट्यूशन पढ़ाकर बच्चौं की परवरिश करने के साथ उन्हें अच्छी तालीम भी दिलाई।
ग्री शुक्ला की अब उम्र ३५ साल है। कानपुर के बर्राहाट की ग्री का ब्याह जब बिजुआ के अवधेश शुक्ला के
साथ हुआ तौ हर सुहागिन की तरह उसने भी खूब ख्वाब देखे थे, लेकिन ग्री की किस्मत में तौ संघर्ष लिखा था,
ब्याह के तीन साल बाद अवधेश बिजुआ में ११ हजार की लाईन की चपेट में आकर चुपचाप इस दुनिया से चले गए।
उस समय ग्री के दौ बच्चे थे, बड़ी लड़की श्वेता जिसकी उम्र दौ साल और छौटा लड़का राजीव महज एक साल
का। श्हर की म्त ने ग्री कौ तौड़ के रख दिया। कहने कौ तौ खानदान और भी था, लेकिन जब वक्त बुरा आया तौ
कौई भी साथ नहीं था। अवधेश के हिस्से कुछ पुश्तैनी जमीन थी, लेकिन इतनी भी नहीं कि घर बैठकर जिंदगी
गुजारी जा सके। अपने दौनौं बच्चौं कौ देख ग्री ने घर चहारदिवारी से बाहर दुनिया में पांव रखने का इरादा कर
लिया। औरत की जात कौई काम धंधा भी नहीं मिल रहा था। १० वीं जमात तक पढ़ीं ग्री की शिक्षा उसके परिवार
की खेवनहार बनी। लौगांे के घरौं में ट्यूशन पढ़ाने ग्री जाने लगी, दस रूपये प्रति बच्चा प्रति माह पर ट्यूशन
पढ़ाकर ग्री ने अपनी श्वेता और राजीव कौ पढ़ाना जारी रखा। आज श्वेता एमए कर चुकी है, और बेटा राजीव ११
वीं में पढ़ रहा है।
दस घंटे रौज पढ़ाती है ट्यूशन
चाहे कौई म्सम हौ ग्री के रूटीन पर कौई फेरबदल नहीं हौता। पिछले १६ साल से सुबह छह बजे से शाम के छह
बजे तक ग्री आज भी ट्यूशन पढ़ा रही है।
भीग गई पलकौं की कौरे
जब ग्री से पूंछा कि कब साथ छौड़ गए थे अवधेश ! हौंठ खुलते इससे पहले आंखौं की पलके भारी हौ गई। बोलीं,
१६ बरस हुए अपने बच्चौं की सूरत देखकर जिंदगी काटी है, और आंखें बरबस रौ पड़ी।
विधवा पेंशन एक साल से वह बंद है, बौलीं कौई खुशी में नहीं लेना चाहेगा, लेकिन फिर भी हम जैसी बेवाओं के लिए
एक बड़ा सहारा हौती है। वहीं सयानी हौ चुकी बेटी की शादी की फिक्र ग्री कौ खाए जा रही है।
साभार -अमर उजाला , अब्दुल सलीम खान
Friday, February 18, 2011
बेटियां पढ़ लिखकर संवारेगीं॒घर की किस्मत | |
परिषदीय स्कूलों में शुरू हुए व्यावसायिक कोर्स |
Sunday, February 13, 2011
Thursday, February 10, 2011
मंदिर की दीवारों पर दर्ज हैं मासूमों की फरियाद | |
मन्नतों का मंदिर प्राचीन लक्ष्मणयती |
Friday, January 28, 2011
Sunday, December 5, 2010
नयी बात
यह कैसा लोकतंत्र, यह कैसी आजादी
अब्दुल सलीम खान
सेहरुआ (खीरी)। आजाद भारत का ये ऐसा गांव है, जहां लोगाें की जहनियत अभी तक कैद में है। सेहरुआ में
बुजुगर्ाें ने रवायत बनाई थी, जब गांव में आधी वोट मर्दो के और आधी वोट औरतें की होती हैं, तो क्यों न
मर्दो की वोट ही जीत-हार तय करे, फिर चुनाव में औरतों का क्या काम? बुजुर्ग तो चले गए लेकिन वो
रवायत यहां आज भी जिंदा है। लोकतंत्र के सबसे बड़े त्यौहार पर भले पूरा गांव झूम रहा हो, लेकिन यहां की
आधी आबादी खामोश है। सेहरुआ गांव में आज भी महिलाएं अपना वोट तक नहीं डालती।
कुंभी ब्लाक के सेहरुआ गांव में वर्ष १९९५ मे प्रधानी के लिए महिला आरक्षण होने पर दोनो प्रत्याशियों
महरुन निशा एवं शिवकुमारी ने अपना वोट डाला था। पिछले लोकसभा चुनाव में सारे गांव ने मतदान का
बहिष्कार कर दिया था, तब प्रशासन ने प्रयास कर १६ वोट डलवाए थे, इसमें गांव के चौकीदार की बीवी का
वोट शामिल था।
दो पदों पर महिलाएं खुद मैदान में
ग्राम पंचायत सदस्य के ११ पदों में पुरुषों के पांच और महिला के दो पद पर निर्विरोध निर्वाचन हो गया,
लेकिन दो पदों पर महिलाओं का चुनाव होना है। अब भले महिलाएं वोट न डालें, लेकिन आरक्षण ने इतना
हक जरूर दे दिया, कि जनप्रतिनिधि कहलाएंगी।
महज दस फीसदी वोट वाला हो सकता प्रधान
सेहरुआ की वोटरलिस्ट में ११३५ मतदाता दर्ज हैं, जिसमें पुरुष ६२२ तो महिलाओं की तादात ५१३ के करीब
है। यही ६२२ पुरुष वोटर ही गांव की प्रधानी के कर्णाधार बनेंगे। पंचायत में दस दावेदारों में लगभग
१२०-१२५ वोट पाने वाला ही प्रधान बनने का हकदार होगा।
सिर्फ चुनाव में ही क्यों ऐसी बंदिशें
गांव में महिला शिक्षामित्र के तौर पर महताब बेगम, आंगनबाड़ी कार्यकत्री बिटोली देवी, आशाबहू मीना एवं
सुषमा मौर्या की तैनाती है। यहां औरतें हर काम में आगे हैं, लेकिन फिर भी मतदान में कभी हिस्सा नहीं
लेती।
यहां की बेटियों को मिला ससुराल में वोट का हक
आबिद अली की बेटी बिटोली जब ब्याह कर अमेठी गई, तब पहली बार वोट का अधिकार मिला। इसी तरह
मोहम्मद अली की बिटिया भी अमेठी में ब्याही है, उसने भी पहला वोट ससुराल में ही डाला। यहां की बेटियों
को मायके ने हक से महरूम रखा उसे ससुराल ने पूरा किया।
Thursday, November 11, 2010
jara sochiye
हम पेड़ों को काट रहे है, एक दिन ऐसा आयेगा जब परिंदों को पेंड़ो के बजाय बिजली के खम्भों पर अपने बसेरे बनाने पड़ेगें ?