सेहरूआ गांव में औरतें नहीं डालती हैं अपने वोट
यह कैसा लोकतंत्र, यह कैसी आजादी
अब्दुल सलीम खान
सेहरुआ (खीरी)। आजाद भारत का ये ऐसा गांव है, जहां लोगाें की जहनियत अभी तक कैद में है। सेहरुआ में
बुजुगर्ाें ने रवायत बनाई थी, जब गांव में आधी वोट मर्दो के और आधी वोट औरतें की होती हैं, तो क्यों न
मर्दो की वोट ही जीत-हार तय करे, फिर चुनाव में औरतों का क्या काम? बुजुर्ग तो चले गए लेकिन वो
रवायत यहां आज भी जिंदा है। लोकतंत्र के सबसे बड़े त्यौहार पर भले पूरा गांव झूम रहा हो, लेकिन यहां की
आधी आबादी खामोश है। सेहरुआ गांव में आज भी महिलाएं अपना वोट तक नहीं डालती।
कुंभी ब्लाक के सेहरुआ गांव में वर्ष १९९५ मे प्रधानी के लिए महिला आरक्षण होने पर दोनो प्रत्याशियों
महरुन निशा एवं शिवकुमारी ने अपना वोट डाला था। पिछले लोकसभा चुनाव में सारे गांव ने मतदान का
बहिष्कार कर दिया था, तब प्रशासन ने प्रयास कर १६ वोट डलवाए थे, इसमें गांव के चौकीदार की बीवी का
वोट शामिल था।
दो पदों पर महिलाएं खुद मैदान में
ग्राम पंचायत सदस्य के ११ पदों में पुरुषों के पांच और महिला के दो पद पर निर्विरोध निर्वाचन हो गया,
लेकिन दो पदों पर महिलाओं का चुनाव होना है। अब भले महिलाएं वोट न डालें, लेकिन आरक्षण ने इतना
हक जरूर दे दिया, कि जनप्रतिनिधि कहलाएंगी।
महज दस फीसदी वोट वाला हो सकता प्रधान
सेहरुआ की वोटरलिस्ट में ११३५ मतदाता दर्ज हैं, जिसमें पुरुष ६२२ तो महिलाओं की तादात ५१३ के करीब
है। यही ६२२ पुरुष वोटर ही गांव की प्रधानी के कर्णाधार बनेंगे। पंचायत में दस दावेदारों में लगभग
१२०-१२५ वोट पाने वाला ही प्रधान बनने का हकदार होगा।
सिर्फ चुनाव में ही क्यों ऐसी बंदिशें
गांव में महिला शिक्षामित्र के तौर पर महताब बेगम, आंगनबाड़ी कार्यकत्री बिटोली देवी, आशाबहू मीना एवं
सुषमा मौर्या की तैनाती है। यहां औरतें हर काम में आगे हैं, लेकिन फिर भी मतदान में कभी हिस्सा नहीं
लेती।
यहां की बेटियों को मिला ससुराल में वोट का हक
आबिद अली की बेटी बिटोली जब ब्याह कर अमेठी गई, तब पहली बार वोट का अधिकार मिला। इसी तरह
मोहम्मद अली की बिटिया भी अमेठी में ब्याही है, उसने भी पहला वोट ससुराल में ही डाला। यहां की बेटियों
को मायके ने हक से महरूम रखा उसे ससुराल ने पूरा किया।